
एक्कं चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदि णव-णवं जीवो
पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हदि मुंचेदि बहु-वारं ॥32॥
एवं जं संसरणं णाणा-देहेसु होदि जीवस्स
सो संसारो भण्णदि मिच्छ-क साएहिं जुत्तस्स ॥33॥
अन्वयार्थ : [मिच्छकसायेहिं जुत्तस्स जीवस्य] मिथ्यात्व कहिये सर्वथा एकान्तरूप वस्तु को श्रद्धा में लाना और कषाय कहिये क्रोध, मान, माया लोभ इनसे युक्त इस जीव का [जं णाणादेहेसु संसरण हवदि] जो अनेक शरीरों संसरण कहिये भ्रमण होता है [सो संसारो भण्णदि] वह संसार कहलाता है । वह किस तरह ? सो ही कहते हैं । [जीवों एक्कं शरीरं चयदि] यह जीव एक शरीर को छोड़ता है [पुणु अण्णं अण्णं बहुवारं गिण्हदि मुंचेदि] फिर अन्य अन्य शरीर को कई बार ग्रहण करता है और छोड़ता है [सो संसारो भण्णदि] वह संसार कहलाता है ।
छाबडा
छाबडा :
एक शरीर से अन्य शरीर की प्राप्ति होते रहना सो संसार है ।
अब ऐसे संसार में संक्षेप से चार गतियाँ हैं तथा अनेक प्रकार के दु:ख है । सो प्रथम ही नरक-गति में दु:ख हैं यह छह गाथाओं में कहते हैं -
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