छाबडा : तीसरे नरक तक तो - असुरकुमार देव कुतूहल-मात्र जाते हैं, वे नारकियों को देखकर आपस में लड़ाते हैं, अनेक प्रकार से दु:खी करते हैं ।
- नारकियों का शरीर ही पाप के उदय से स्वयमेव अनेक रोगों सहित, बुरा, घिनावना, दु:खमयी होता है ।
- उनका चित्त भी महाक्रूर दु:खरूप ही होता है ।
- नरक का क्षेत्र महाशीत उष्ण, दुर्गन्ध और अनेक उपद्रव सहित होता हैं ।
- नारकी जीव आपस में बैर के संस्कार से छेदन, भेदन, मारन, ताड़न और कुम्भीपाक आदि करते हैं ।
वहाँ का दु:ख उपमा रहित हैं ।
आगे इसी दु:ख को विशेष रूपसे कहते हैं -
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