+ तीर्यंच गति के दुःख -
तत्तो णीसरिदूणं जायदि तिरएसु बहुवियप्पेसु
तत्थ वि पावदि दुक्खं गब्भे वि य छेयणादीयं ॥40॥
अन्वयार्थ : [णरये खित्तसहावेण सव्‍वं पि दुक्‍खदं असुहं होदि] नरक मे क्षेत्र स्‍वभाव से सब ही कारण दु:खदायक तथा अशुभ है । [णेरइया सव्‍वकालं अण्‍णीण्‍णं कुविदा होंति] नारकी जीव सदा काल परस्‍परमें क्रोधित होते रहते हैं ।

  छाबडा