+ इसी को आगे और दृढ़ करते हैं -
सयलट्ठ-विसय-जोओ बहु-पुण्णस्स वि ण सव्वहा होदि
तं पुण्णं पि ण कस्स वि सव्वं जेणिच्छिदं लहदि ॥50॥
अन्वयार्थ : (इस संसार में) [सयलट्ठविसहजोओ] समस्‍त जो पदार्थ, (विषय / भोग्‍य वस्‍तु), उनका योग [बहुपुण्‍णस्‍स वि ण सव्‍वदो होदि] बड़े पुण्‍यवानों को भी पूर्णरूप से नहीं मिलता है [तं पुण्‍णं पि ण कस्‍स वि] ऐसा पुण्‍य किसी के भी नहीं है [जे सव्‍वं णिच्छिदं लहदि] जिससे सब ही मनवांछित मिल जाय ।

  छाबडा 

छाबडा :

बड़े पुण्‍यवान् के भी वांछित वस्‍तु में कुछ कमी रह ही जाती है, सब मनोरथ तो किसी के भी पूरे नहीं होते हैं तब सर्व-सुखी कैसे होवे ?