+ विषयों में पराधिनता ही दुःख -
देवाणं पि य सुक्खं मणहर-विसएहिं कीरदे जदि हि
विसय -वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥61॥
अन्वयार्थ : [जदि ही देवाणं पिय मणहरविसएहिं सुक्‍खं कीरदे] यदि देवों के मनोहर विषयों से सुख समझा जावे तो सुख नहीं है [जं विषयवसं सुक्‍खं] जो विषयों के आधीन सुख है [तं पि दुक्‍ख्‍स्‍स वि कारणं] वह दु:ख ही का कारण है ।

  छाबडा 

छाबडा :

अन्‍य निमित्त से सुख मानते हैं सो भ्रम है, जिस वस्‍तु को सुख का कारण मानते हैं वह ही वस्‍तु कालान्‍तर में (कुछ समय बाद) दु:ख का कारण हो जाती है ।

अब कहते हैं कि इस तरह विचार करने पर कहीं भी सुख नहीं है -