
दुक्किय-कम्म-वसादो राया वि य असुइ-कीडओ होदि
तत्थेव य कुणइ रइं पेक्ख ह मोहस्स माहप्पं ॥63॥
अन्वयार्थ : [मोहस्स माहप्पं पेक्खह] मोह के माहात्म्य को देखो कि [दुक्कियकम्मसादो] पाप-कर्म के वश से [राया वि य असुइकीडओ होदि] राजा भी विष्ठा का कीड़ा हो जाता है [य तत्थेव रइं कुणइ] और वहीं पर रति करता है ।
छाबडा
छाबडा :
अब कहते हैं कि इस प्राणीके एक ही भवमें अनेक सम्बन्ध हो जाते हैं -
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