+ भाव परावर्तन -
परिणमदि सण्णि-जीवो विविह-कसाएहिं ठिदि-णिमित्तेहिं
अणुभाग-णिमित्तेहि य वट्टंतो भाव-संसारे ॥71॥
अन्वयार्थ : [भावसंसारे वट्टन्‍तो] भावसंसार में वर्तता हुआ जीव [ट्ठिदिणिमित्तेहिं] अनेक प्रकार कर्म की स्थिति-बन्‍ध को कारण [य अणुभागणिमित्तेहिं] और अनुभाग-बन्‍ध को कारण [विविहकसाएहिं] अनेक प्रकार के कषायों से [सण्णिजीवो] सैनी-पंचेन्द्रिय जीव [परिणमदि] परिणमता है ।

  छाबडा 

छाबडा :

कर्म की एक स्थिति-बन्‍ध को कारण कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं, उसमें एक स्थिति-बन्‍ध-स्‍थान में अनुभाग-बन्‍ध को कारण कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं । जो योग्‍य स्‍थान हैं वे जगत्श्रेणी के असख्‍यातवें भाग हैं । यह जीव उनका परिवर्त्तन करता है । सो किस तरह ?

कोई सैनी मिथ्‍यादृष्‍टी पर्याप्‍तक जीव स्‍वयोग्‍य सर्व जघन्‍य ज्ञानावरण प्रकृति की स्थिति अन्‍त:कोटाकोटी सागर प्रमाण बाँधता है । उसके कषायों के स्‍थान असंख्‍यात लोक-मात्र हैं । उसमें सब जघन्‍य-स्‍थान एकरूप परिणमते हैं, उसमें उस एक स्‍थान में अनुभाग-बन्‍ध के कारण ऐसे असंख्‍यात लोक-प्रमाण हैं । उनमें से एक सर्व-जघन्‍य रूप परिणमता है, वहाँ उस योग्‍य सर्व-जघन्‍य ही योगस्‍थान-रूप परिणमते हैं, तग जगत्श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग योग-स्‍थान अनुक्रम से पूर्ण करता है । बीच में अन्‍य योग-स्‍थानरूप परिणमता है वह गिनती में नहीं है । इस तरह योग-स्‍थान पूर्ण होने पर अनुभाग का स्‍थान दूसरा रूप परिणमता है, वहाँ भी वैसे ही योग-स्‍थान सब पूर्ण करता है । तीसरा अनुभाग-स्‍थान होता है वहाँ भी उतने ही योग-स्‍थान भोगे । इस तरह असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-स्‍थान अनुक्रम से पूर्ण करे तब दूसरा कषाय-स्‍थान लेना चाहिए । वहाँ भी वैसे ही क्रम से असंख्‍यात लोक-प्रमाण अनुभाग-स्‍थान तथा जगत्श्रेणी के असंख्‍यातवें भाग योग-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से भोगे तब ही तीसरा कषाय-स्‍थान लेना चाहिए । इस तरह से ही चतुर्थादि असंख्‍यात लोक-प्रमाण कषाय-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से पूर्ण करे, तब एक समय अधिक जघन्‍य-स्थिति स्‍थान लेना चाहिए, उसमें भी कषाय-स्‍थान अनुभाग-स्‍थान योग-स्‍थान पूर्वोक्त क्रम से भोगे । इस तरह दो समय अधिक जघन्‍य-स्थिति से लगाकर तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्‍त ज्ञानावरण कर्म की स्थिति पूर्ण करे । इस तरह से ही सब मूल-प्रकृति तथा उत्तर कर्म-प्रकृतियों का क्रम जानना चाहिए । इस तरह परिणमन करते हुए अनन्‍तकाल व्‍यतीत हो जाता है, उस सबको इ‍कट्ठा करने पर एक भाव-परिवर्त्तन होता है । इस तरह के अनन्‍त परावर्त्तन यह जीव भोगता आया है ।

अब पंच-परावर्तन के कथन का संकोच करते हैं -