+ एकत्व अनुप्रेक्षा -
इक्को जीवो जायदि एक्को गब्भम्हि गिण्हदे देहं
इक्को बाल-जुवाणो इक्को वुढ्ढो जरा-गहिओ ॥74॥
इक्को रोई सोई इक्को तप्पेइ माणसे दुक्खे
इक्को मरदि वराओ णरय -दुहं सहदि इक्को वि ॥75॥
इक्को संचदि पुण्णं इक्को भुंजेदि विविह-सुर-सोक्खं
इक्को खवेदि कम्मं इक्को वि य पावए मोक्खं ॥76॥
अन्वयार्थ : [जीवो इक्‍को जायदि] जीव अकेला उत्‍पन्‍न होता है [इक्‍को] अकेला [गब्भम्हि] गर्भ में [गिण्हदे देहं] देह को ग्रहण करता है [इक्‍को बाल जुवाणो] अकेला बालक, जवान होता है [इक्‍को जरागहिओ वुढ्ढो] अकेला जरा (बुढापे) से गृहीत वृद्ध होता है।
[इक्‍को रोई सोई] अकेला रोगी, शोक-सहित होता है [इक्‍को] अकेला [माणसे दुक्‍खे] मानसिक दु:ख से [तप्‍पेइ] तप्‍तायमान होता है [इक्‍को मरदि] अकेला मरता है [इक्‍को वि] अकेला [वराओ णरयदुहं सहदि] नरक के दु:ख सहता है ।
[इक्‍को] अकेला [पुण्‍यं] पुण्‍य [संचदि] संचित करता है [इक्‍को] अकेला [विविहसुरसोक्‍खं] नाना प्रकार के देव-गति के सुख [भुज्‍जेदि] भोगता है [इक्‍को] अकेला [कम्मं] कर्म को [खवेदि] नष्‍ट करता है [इक्‍कोविय] अकेला ही [मोक्‍खं] मोक्ष को [पावए] पाता है ।

  छाबडा 

छाबडा :

वह ही जीव पुण्‍य करके स्‍वर्ग जाता है, वह ही जीव कर्मों को नाश करके मोक्ष जाता है ।



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