
जीवस्स णिच्छयादो धम्मो दह-लक्खणो हवे सुयणो
सो णेइ देव-लोए सो चिय दुक्ख-क्खयं कुणइ ॥78॥
अन्वयार्थ : [जीवस्स] इस जीव के [सुयणो] अपना हितकारक [णिच्छयादो] निश्चय से [दहलक्खणो] एक उत्तम क्षमादि दशलक्षण [धम्मो] धर्म ही [हवे] है, [सो] वह धर्म ही [देवलोए] देवलोक [स्वर्ग] में [णेई] ले जाता है [सो चिय] और वह ही [दुक्खक्खयं कुणइ] दु:खों का क्षय करता है ।
छाबडा
छाबडा :
धर्म के सिवाय और कोई भी हितकारी नहीं है ।
अब कहते हैं कि इस तरह से अकेले जीव को शरीर से भिन्न जानना चाहिये -
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