+ उपसंहार -
जो जाणिऊण देहं जीव-सरुवादु तच्चदो भिण्णं
अप्पाणं पि य सेवदि कज्ज-करं तस्स अण्णत्तं ॥82॥
अन्वयार्थ : [जो] जीव [जीवसरूवादु] अपने स्‍वरूप से [देहं] देह को [तच्‍चदो भिण्‍णं] परमार्थ से भिन्न [जाणिऊण] जानकर [अप्‍पाणं पि य सेवदि] आत्‍म-स्‍वरूप को सेवता (ध्‍याता) है [तस्‍स अण्‍णत्तं कज्‍जकरं] उसके अन्‍यत्‍व-भावना कार्यकारिणी है ।

  छाबडा 

छाबडा :

जो देहादिक पर-द्रव्‍यों को भिन्‍न जानकर अपने नित्‍य ज्ञानानन्‍द स्‍वरूप का सेवन करता है उसके अन्‍यत्‍व-भावना कार्यकारिणी है ।

दोहा
निज आतमतैं भिन्‍न पर, जानै जे न‍र दक्ष ।
निज में रमैं वमैं अपर, ते शिव लखैं प्रत्‍यक्ष ॥
इति अन्‍वत्‍वरनुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥