+ उपगूहन अंग -
धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया ।
परदोषनिगूहनमपि विघेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥27॥
मार्दव आदि भावनाओं से आत्मधर्म में वृद्धि करो ।
उपबृंहण के लिए और पर-दोषों को भी गुप्त रखो ॥२७॥
अन्वयार्थ : [उपबृंहणगुणार्थं] उपगूहन गुण के लिये [मार्दवादिभावनया] मार्दव, क्षमा, सन्तोषादि भावनाओं से [सदा आत्मनो धर्म:] निरन्तर अपने आत्मा को धर्म (शुद्धस्वभाव) की [अभिवर्द्धनीय:] वृद्धि करनी चाहिए और [परदोष-निगूहनमपि विधेयम्] दूसरे के दोषों को गुप्त भी रखना चाहिए ।
Meaning : To evolve the virtue of Upavrinhana, one should ever cultivate the true nature of Jiva by meditating upon ten. derness etc., and should also try to cover the defects of others.

  टोडरमल