
आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ।
दान तपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥30॥
आत्मा की करना प्रभावना सतत तेज रत्नत्रय से ।
जिनशासन की, अतिशय विद्या पूजा दान शील तप से ॥३०॥
अन्वयार्थ : [सततमेव रत्नत्रयतेजसा] निरंतर ही रत्नत्रय के तेज से [आत्मा प्रभावनीय: च] स्वयं को प्रभावनायुक्त करना चाहिए और [दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयै:] दान, तप, जिनपूजन और विद्या के अतिशय से अर्थात् इनकी वृद्धि करके [जिनधर्म:] जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए ।
Meaning : One should ever make his own self radiant by the light of the three jewels, and should add to the glory of Jain. ism by exceptional charity, austerity, worship of Jina, the Conqueror, and by learning.
टोडरमल