
चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात् ।
सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरुपं तत् ॥39॥
सम्पूर्ण सावद्य योग के, परिहार से चारित्र है ।
वह उदासीन विशद कषायों, से रहित निजरूप है ॥३९॥
अन्वयार्थ : [यत: तत् चारित्रं] क्योंकि वह चारित्र [समस्तसावद्य-योगपरिहरणात्] समस्त पाप-युक्त योग के त्याग से [सकलकषाय-विमुक्तं] सम्पूर्ण कषाय रहित [विशदं उदासीनं] निर्मल और परपदार्थों से विरक्ततारूप [आत्मरूपं भवति] आत्मस्वरूप होता है ।
Meaning : Thus, by restraint of all censurable movements, is attained such clear and unattached conduct, as is above all passion. This is the very nature of the self.
टोडरमल