
युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि ।
न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥45॥
रागादि भावों के बिना, युक्ताचरणमय मुनि के ।
अत्यल्प भी हिंसा नहीं है, प्राणपीड़न मात्र से ॥४५॥
अन्वयार्थ : [अपि युक्ताचरणस्य सत:] और योग्य आचरण वाले सन्त पुरुष के [रागाद्यावेशमन्तरेण प्राणव्यपरोपणात्] रागादिभावों के बिना केवल प्राण पीड़न से [हिंसा जातु एव] हिंसा कभी भी [न हि भवति] नहीं होती ।
Meaning : There never is Himsa when vitalities are injured, if a person is not moved by any kind of passions and is carefully following Right Conduct.
टोडरमल