
हिंसायाअविरमणं हिंसा परिणमनपि भवति हिंसा ।
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥48॥
हिंसा से अविरत के हि परिणत, नित्य हिंसा भी हुई ।
इससे प्रमादी योग में है प्राणव्यपरोपण सभी ॥४८॥
अन्वयार्थ : [हिंसाया: अविरमणं हिंसा] हिंसा से विरक्त न होने से हिंसा होती है और [हिंसापरिणमनं अपि हिंसा भवति] हिंसारूप परिणमन करने से भी हिंसा होती है [तस्मात् प्रमत्तयोगे] इसलिए प्रमाद के योग में [नित्यं प्राणव्यपरोपणं] निरन्तर प्राणघात का सद्भाव है ।
Meaning : The want of abstivence from Himsa, and indulgence in Hiinsa, both constitute Himsa ; and thus whenever there is careless activity of mind, body, or speech, there always is injury to vitalities.
टोडरमल