+ दुखी जीवों को भी न मारे -
बहुदुःखासंज्ञपिताः प्रयान्ति त्वचिरेण दुःखविच्छित्तिम् ।
इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः ॥85॥
अति दु:ख पीड़ित शीघ्र ही, सब दुखों से छूटें सदा ।
यों वासना असि ले दुखी को, भी कभी नहिं मारना ॥८५॥
अन्वयार्थ : [तु बहुदु:खासंज्ञपिता:] और 'अनेक दु:खों से पीड़ित जीव [अचिरेण दु:खविच्छित्तम् प्रयान्ति] थोड़े ही समय में दु:खों का अन्त पा जावेंगे' [इति वासनाकृपाणीं आदाय] इस प्रकार की वासना अथवा विचाररूपी तलवार लेकर [दु:खिन: अपि] दु:खी जीवों को भी [न हन्तव्या:] नहीं मारना चाहिए ।
Meaning : "Those in great suffering will on being killed soon obtain relief from agony." Do not even kill the distressed one by having grasped the sword of such misconception.

  टोडरमल