
यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म ।
अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥107॥
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥108॥
जो राग वेद संयोग से, मैथुन कहा अब्रम्ह वह ।
सर्वत्र वध सद्भाव से, हिंसा वहाँ होती सतत ॥१०७॥
तिलयुत नली में शलाका, अति तप्त डालें ज्यों भुनें ।
त्यों योनि में स्थित अनेकों, जीव मैथुन में मरें ॥१०८॥
अन्वयार्थ : [यत् वेदरागयोगात्] जो वेद के रागरूप योग से [मैथुनं अभिधीयते] स्त्री-पुरुषों का सहवास कहा जाता है [तत् अब्रह्म] वह अब्रह्म है और [तत्र वधस्य] उस सहवास में प्राणिवध का [सर्वत्र सद्भावात्] सर्व स्थान में सद्भाव होने से [हिंसा अवतरति] हिंसा होती है ।
[यद्वत् तिलनाल्यां] जैसे तिल से भरी हुई नली में [तप्तायसि विनिहिते] गरम लोहे की शलाका डालने से [तिला: हिंस्यन्ते] तिल भुन जाते हैं [तद्वत् मैथुने योनौ] वैसे ही मैथुन के समय योनि में भी [बहवो जीवा: हिंस्यन्ते] बहुत से जीव मर जाते हैं ।
Meaning : Abrahm is copulation arising from sexual desire. It is attended with the killing of life all round, and Himsa is therefore present in the act. Just as a hot rod of iron burns up the sesamum seed filled in a tube in which it is introduced, in the same way many beings are killed in the vagina during copulation.
टोडरमल