
इति य: परिमितभोगै: सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् ।
बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥166॥
यों हुआ सीमित भोग से, संतुष्ट भोग बहुत तजे ।
यों बहुत हिंसा से रहित, उसके अहिंसा विशेष है ॥१६६॥
अन्वयार्थ : [य:] जो गृहस्थ [इति] इस प्रकार [परिमितभोगै:] मर्यादारूप भोगों से [सन्तुष्ट:] सन्तुष्ट होकर [बहुतरान्] बहुत से [भोगान्] भोगों को [त्यजति] छोड़ देता है [तस्य] उसके [बहुतरहिंसाविरहात्] अधिक हिंसा के त्याग से [विशिष्टा अहिंसा] विशेष अहिंसाव्रत [स्यात्] होता है ।
Meaning : He who being thus contented with a few limited enjoyments, renounces the vast majority of them, observes Ahimsa par-excellence because of abstention from considerable Himsa.
टोडरमल