उत्तमपत्तं भणियं, सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू ।
सम्मादिट्ठी सावय, मज्झिमपत्तो हु विण्णेओ ॥17॥
णिद्दिट्ठो जिणसमये, अविरदसम्मो जहण्णपत्तो त्ति ।
सम्मत्तरयणरहिओ, अपत्तमिदि संपरिक्खेज्जो ॥18॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्वरूप गुण से युक्त साधु को उत्तम पात्र कहा गया है, सम्यग्दृष्टि श्रावक को मध्यम पात्र जानना चाहिए, जिनागम में अविरत सम्यग्दृष्टि को जघन्य पात्र कहा गया है और जो सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से रहित है वह अपात्र है। इस प्रकार पात्र और अपात्र की परीक्षा करनी चाहिए ॥१७-१८॥