एक्‍कोहं णिम्‍ममो सुद्धो, णाणदंसणलक्‍खणो ।
सुद्धेयत्‍तमुपादेयमेवं चिंतेइ संजदो ॥20॥
अन्वयार्थ : मैं अकेला हूँ, ममत्‍व से रहित हूँ, शुद्ध हूँ तथा ज्ञान-दर्शनरूप लक्षण से युक्‍त हूँ इसलिए शुद्ध एकत्‍वभाव ही उपादेय है—ग्रहण करने के योग्‍य है। इस प्रकार संयमी साधु को सदा विचार करते रहना चाहिए ॥२०॥