+ संवरानुप्रेक्षा का स्वरूप -
चलमलिनमगाढं च, वज्जिय सम्‍मत्‍तदिढकवाडेण ।
मिच्‍छत्‍तासवदारणिरोहो होदि त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठं ॥61॥
अन्वयार्थ : चल, मलिन और अगाढ़ दोष को छोड़कर सम्‍क्‍त्‍वरूपी दृढ़ कपाटों के द्वारा मिथ्‍यात्‍वरूपी आस्रवद्वार का निरोध हो जाता है ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है ॥६१॥