जीवस्‍स ण संवरणं, परमट्ठणएण सुद्धभावादो ।
संवरभावविमुक्‍कं, अप्‍पाणं चिंतए णिच्‍चं ॥65॥
अन्वयार्थ : परमार्थ नय---निश्‍चय नयसे जीव के संवर नहीं है क्‍योंकि वह शुद्ध भाव से सहित है। अतएव आत्‍मा को सदा संवरभाव से रहित विचारना चाहिए ॥६५॥