सा पुण दुविहा णेया, सकालपक्‍का तवेण कयमाणा ।
चदुगदियाणं पढमा, वयजुत्‍ताणं हवे बिदिया ॥67॥
अन्वयार्थ : फिर वह निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिए -- एक अपना उदयकाल आनेपर कर्मों का स्‍वयं पककर झड़ जाना और दूसरी तपके द्वारा की जानेवाली। इनमें पहली निर्जरा तो चारों गतियों के जीवों की होती है और दूसरी निर्जरा व्रती जीवों के होती है ॥६७॥