
एयारसदसभेयं, धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं ।
सागारणगाराणं, उत्तमसुहसंपजुत्तेहिं ॥68॥
अन्वयार्थ : उत्तम सुख से संपन्न जिनेंद्र भगवान् ने कहा है कि गृहस्थों तथा मुनियों का वह धर्म क्रम से ग्यारह और दश भेदों से युक्त है तथा सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है ॥६८॥