सदासुखदास :
परमेष्ठी अर्थात् परमइष्ट । इन्द्रादिकों के द्वारा वंदनीय जो परामात्म-स्वरूप में ठहरा है वह परमेष्ठी है । परमेष्ठी और कैसा होता है ? अन्तरंग तो घातिया कर्मों के नाश से प्रगट हुआ है । अनन्त-ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य-स्वरूप अपना जो निर्विकार, अविनाशी, परमात्म स्वरूप उसमें स्थित है; और बाह्य में इन्द्रादिक असंख्यात देवों द्वारा वन्ध्य-मान, समोशरण सभा के बीच में तीन पीठिकाओं के ऊपर, दिव्य सिंहासन में चार अंगुल अधर, चौंसठ चमरों सहित विराजमान, तीन छत्र आदि दिव्य संपत्ति से विभूषित, इंद्रादिक देव और मनष्यों आदि निकट-भव्यों को धर्मोपदेश-रूप अमृत का पान कराता हुआ, जन्म-जरा-मरण के दुखों का निराकरण करता हुआ विराजमान हैं; ऐसे भगवान आप्त को परमेष्ठी कहते हैं । जो कर्मों की आधीनता से इंद्रियों के काम-भोग आदि विषयों में तथा विनाशीक संपदा-रूप राज्य-संपदा में मग्न होकर स्त्रियों के आधीन होकर विषयों की तपन सहित रह रहे हैं उनको परमेष्ठी-पना संभव ही नहीं है । जो परंज्योति हैं; जिसके परं अर्थात् आवरण रहित, ज्योति अर्थात् अतीन्द्रिय अनन्त-ज्ञान में लोक-अलोकवर्ती समस्त पदार्थ अपने त्रिकालवर्ती अनन्त-गुण पर्यायों के साथ युगपत् प्रतिबिम्बित हो रहे हैं; ऐसे भगवान परम ज्योति-स्वरूप आप्त हैं । अन्य जो इन्द्रिय-जनित ज्ञान से अल्प-क्षेत्रवर्ती वर्तमान स्थूल पदार्थों को क्रम-क्रम से जानता है उसे परं-ज्योति कैसे कहा जा सकता है ? जिसे मोहनीय कर्म का नाश होने से समस्त पर-द्रष्यों में राग-द्वेष का अभाव होने से वांछारहित परम वीतरागता प्रगट हुई है, वह वास्तु का सच्चा स्वरूप जान लेने पर किसमें राग करेगा और किसमें द्वेष करेगा ? जैसा वास्तु का स्वभाव है कैसा राग द्वेष रहित जानता है; ऐसा विराग नाम सहित अरहन्त ही आप्त है । जो कामी-विषयों में आसक्त, गीत-नृत्य-वाद्यों में आसक्त, जगत की स्त्रियों को लुभाने में, बैरियों को मारकर लोगों में अपना शुरपना प्रगट करने की इच्छा सहित है उसको विराग-पना सम्भव नहीं है । जिनका काम, क्रोध, मान, माया, लोभादि भावमल नष्ट हो गया है; ज्ञानावरणादि कर्ममल नष्ट हो गया है; मूत्र, पुरीष, पसेव, वात, पित्तादि शरीरमल नष्ट हो गया है; निगोदिया जीवों से रहित, छाया रहित, कांति युक्त, क्षुधा, तृषा, रोग, निद्रा, भय, विस्मय आदि रहित परम ओदारिक शरीर में विराजमान वे भगवान आप्त अरहन्त ही विमल हैं । अन्य जो काम, क्रोध आदि मलों सहित हैं वे विमल नहीं हैं। जिन्हें कूछ करना बाकी नहीं रहा, जो शुद्ध अनन्त ज्ञानादिमय अपने स्वरूप को प्राप्त होकर व्याधि-उपाधि रहित कृत-कृत्य हुए वे भगवान आप्त ही कृती हैं; अन्य तो जन्म-मरण आदि सहित; चक्र, आयुध, त्रिशूल, गदा आदि सहित; कनक-कामिनी में आसक्त; भोजन-पान, काम-भोगादिक की लालसा सहित; शत्रुओं को मारने की आकुलता सहित हैं वे कृती नहीं हैं । जो इंद्रियादि परद्रव्यों की सहायता रहित, युगपत् समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को, क्रमरहित, प्रत्यक्ष जानते हैं, वे भगवान आप्त ही सर्वज्ञ हैं; अन्य जो इंद्रियाधीन-ज्ञान सहित हैं, वे सर्वज्ञ नहीं हैं । जिनका जीव, द्रव्य की अपेक्षा तथा ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य गुणों की अपेक्षा आदि, मध्य, अन्त नहीं है इसलिये अनादिमध्यान्त हैं । दूसरे अर्थ में - भगवान आप्त अनादिकाल से हैं और कभी अन्त को प्राप्त नहीं होंगे इसलिये अनादिमध्यान्त हैं । जिनके मत में आप्त का जन्म-मरण, जीव का नवीन उत्पन्न होना तथा जीव के ज्ञानादि गुण नवीन उत्पन्न होना मानने हैं, उनमें अनादिमध्यान्त नहीं बनता है । जिनके वचन व काय की प्रवृत्ति समस्त जीवों के हित के लिये ही होती है, वे भगवान आप्त सार्व कहलाते हैं । अन्य जो काम, क्रोध, संग्राम आदि हिंसा प्रधान समस्त पापों द्वारा स्वपर के अहित में प्रवर्तन करते हैं, कराते हैं, उनको ऐसा नाम ही संभव नहीं है । इस प्रकार आठ विशेषण सहित सार्थक नामों द्वारा शास्ता जो आप्त उसका असाधारण स्वरुप कहा है । 'शास्तीति शास्ता' इसका निरुक्ति अर्थ ऐसा है -- जो निकट भव्य शिष्य हैं उन्हें जो हित की शिक्षा देवे वह शास्ता कहलाता है । |