प्रभाचन्द्राचार्य :
सम्यग्दर्शनविषयभूताप्तस्वरूपमभिधायेदानीन्तद्विषयभूतागमस्वरूपमभिधातुमाह -- शास्ता आप्त: । शास्ति शिक्षयति । कान् ? सत: अविपर्ययस्तादित्वेन समीचीनान्भव्यान् । किं शास्ति ? हितं स्वर्गादितत्साधनं च सम्यग्दर्शनादिकम् । किमात्मन: किञ्चित्फलमभिलषन्नसौशास्तीत्याह -- अनात्मार्थं न विद्यते आत्मनोऽर्थ: प्रयोजनं यस्मिन्शासनकर्मणि परोपकारमेवासौ तान्शास्ति । परोपकाराय सतां हि चेष्टितम् इत्यभिधानात् । स तथा शास्तीत्येतत्कुतोऽवगतमित्याह विनारागै: यतो लाभ-पूजा-ख्यात्यभिलाषालक्षणपरैर्रागैर्विनाशास्तिततोऽनात्मार्थं शास्तीत्यवसीयते । अस्यैवार्थस्यसमर्थनार्थमाह- ध्वनन्नित्यादि । शिल्पिकरस्पर्शाद्वादककराभि-घातान्मुरजोनदतोध्वनन्किमात्मार्थङ्किञ्चिदपेक्षते ? नैवापेक्षते । अयमर्थ :- यथामुरज: परोपकारार्थमेवविचित्रान्शब्दान्करोतितथासर्वज्ञ: शास्त्रप्रणयनमिति ॥८॥ |
आदिमति :
अरहन्त भगवान् विपर्ययादि दोषों से रहित श्रेष्ठ भव्य जीवों को दिव्यध्वनि के द्वारा स्वर्गादिक तथा उनके साधनरूप सम्यग्दर्शनादिक का उपदेश देते हैं, किन्तु वे अपने लिए किंचित् भी फलाभिलाषा-रूप राग नहीं रखते हैं तथा उस उपदेश में उनका स्वयं का भी कोई प्रयोजन नहीं रहता । मात्र परोपकार के लिए उनकी दिव्य वाणी की प्रवृत्ति होती है । कहा भी है -- 'परोपकाराय सतां हि चेष्टितम्' अर्थात् सत् पुरुषों की चेष्टा परोपकार के लिए ही होती है । राग तथा निजी प्रयोजन के बिना आप्त कैसे उपदेश देते हैं ? इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए कहते हैं कि जैसे शिल्पी के हाथ के स्पर्श से बजनेवाला, मनुष्य के हाथ की चेष्टा से शब्द करता हुआ मृदंग क्या कुछ चाहता है? कुछ नहीं चाहता । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मृदंग परोपकार के लिए अनेक प्रकार के शब्द करता है, उसी प्रकार आप्त भगवान् भी परोपकार के लिए ही दिव्यध्वनि के माध्यम से उपदेश देते हैं । |
सदासुखदास :
संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है । 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है । |