+ शास्त्र का लक्षण -
आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यम्-दृष्टेष्ट-विरोधकम्
तत्त्वोपदेश-कृत्सार्वं-शास्त्रं-कापथ-घट्टनम् ॥9॥
अन्वयार्थ : [शास्त्रं] वह शास्त्र सर्वप्रथम [आप्तोपज्ञम] आप्त भगवान् के द्वारा कहा हुआ है, [अनुल्लंघ्यम्] अन्य वादियों के द्वारा जो अखण्डनीय है, [अदृष्टेष्टविरोधकम्] प्रत्यक्ष तथा अनुमानादि के विरोध से रहित है, [तत्त्वोपदेशकृत्] तत्त्वों का उपदेश करने वाला है, [सार्व] सबका हितकारी है और [कापथघट्टनम्] मिथ्यामार्ग का निराकरण करनेवाला है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

कीदृशन्‍तच्छास्त्रंयत्तेनप्रणीतमित्याह --
आप्तोपज्ञं सर्वज्ञस्य प्रथमोक्ति: । अनुल्लङ्‍घ्यं यस्मात्तदाप्तोपज्ञं तस्मादिन्द्रादीनामनुल्लङ्‍घ्यमादेयं । कस्मात् ? तदुपज्ञत्वेन तेषामनुल्लङ्‍घ्यं यत: । अदृष्टेष्टविरोधकं दृष्टं प्रत्यक्षं, इष्टमनुमानादि, न विद्यते दृष्टेष्टाभ्यां विरोधो यस्य । तथाविधमपि कुतस्तत्सिद्धमित्याह- तत्त्वोपदेशकृत् यतस्तत्त्वस्य च सप्तविधस्य जीवादिवस्तुनो यथावस्थितस्वरूपस्य वा उपदेशकृत्यथावत्प्रतिदेशकं ततो दृष्टेष्टविरोधकं । एवंविधमपिकस्मादवगतम् ? यत: सार्वं सर्वेभ्यो हितं सार्वमुच्यते तत्कथं यथावत्तत्स्वरूपप्ररूपणमन्तरेणघटते । एतदप्यस्य कुतो निश्चितमित्याह -- कापथघट्टनं यत: कापथस्य कुत्सितमार्गस्य मिथ्यादर्शनादेर्घट्टनंनिराकारकं सर्वज्ञप्रणीतं शास्त्रं ततस्तत्सार्वमिति ॥९॥
आदिमति :

'आप्तोपज्ञं' वह शास्त्र सर्वप्रथम आप्त के द्वारा जाना गया है एवं आप्त के द्वारा ही कहा गया है । इसलिए इन्द्रादिक देव उसका उल्लंघन नहीं करते, किन्तु श्रद्धा से उसे ग्रहण करते हैं । कुछ प्रतियों में 'तस्मादितरवादिनामनुल्लंघ्य' यह पाठ भी है । इसके अनुसार अन्य वादियों के द्वारा उल्लंघन करने योग्य नहीं है । 'अदृष्टेष्टविरोधकम्' इष्ट का अर्थ प्रत्यक्ष तथा अदृष्ट का अर्थ अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों को ग्रहण किया है । (यहां अर्थ सही प्रतीत नहीं हो रहा है । -शिखर) आप्त के द्वारा प्रणीत शास्त्र इन प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों के विरोध से रहित है । तथा जीव अजीवादि सात प्रकार के तत्त्वों का उपदेश करने वाला है । अथवा अपने-अपने यथार्थ स्वरूप से सहित छह द्रव्यों का उपदेश करने वाला है । 'सर्वेभ्यो हितं सार्वं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सब जीवों का हित करने वाला है, यह यथावत् स्वरूप के बिना घटित नहीं हो सकता । और कुत्सित-खोटा मार्ग जो कि मिथ्यादर्शनादिक हैं उनका निराकरण करने वाला है । शास्त्र की ये सभी विशेषताएँ आप्तप्रणीत होने पर ही सिद्ध हो सकती हैं ॥९॥
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।