प्रभाचन्द्राचार्य :
अथेदानींश्रद्धानगोचरस्यतभोभृत: स्वरूपम्प्ररूपयन्नाह -- विषयेषुस्रग्वनितादिष्वाशाआकाङ्क्षातस्यावशमधीनता । तदतीतोविषयाकाङ्क्षारहित: । निरारम्भ: परित्यक्तकृष्यादिव्यापार: । अपरिग्रहो बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहित: । ज्ञानध्यानतपोरत्न ज्ञानध्यानतपांस्येवरत्नानियस्य एतद्गुणविशिष्टोय: स तपस्वी गुरु: प्रशस्यते श्लाघ्यते ॥१०॥ |
आदिमति :
जिनके स्पर्शनादिक पञ्चेन्द्रिय के विषयभूत माला तथा स्त्री आदि विषयों की आकाङ्क्षा सम्बन्धी अधीनता नष्ट हो गई है अर्थात् जो पूर्णरूपेण इन्द्रिय-विजयी हैं। तथा जिन्होंने खेती आदि व्यापार का परित्याग कर दिया है और जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित हैं, तथा ज्ञान ध्यान और तप ही जिनके श्रेष्ठ रत्न हैं, उन्हीं में जो सदैव लीन रहते हैं वे तपस्वी-गुरु प्रशंसनीय होते हैं । |
सदासुखदास :
जो रसना इंद्रिय का लम्पटी हो, अनेक प्रकार के रसों के स्वाद की इच्छा के वशीभूत हो रहा हो, कर्ण-इन्द्रिय के वशीभूत हो, अपना यश-प्रशंसा सुनने का इच्छुक हो, अभिमानी हो; नेत्रों द्वारा सुन्दर रूप, महल, मन्दिर, बाग, वन, ग्राम, आभूषण वस्त्रादि देखने का इच्छुक हो; कोमल-शय्या--कोमल उच्चासन के ऊपर सोने-बैठने का इच्छुक हो, सुगन्ध आदि ग्रहण करने का इच्छुक हो, विषयों का लम्पटी हो सो ऐसा गुरु दूसरों को विषयों से छुडाकर वीतराग मार्ग में नहीं लगा सकता; वह तो सराग मार्ग में ही लगाकर संसार समुद्र में डुबो देगा । इसलिये जो विषयों की आशा के वशीभूत नहीं ऐसा गुरु ही आराधन, वंदन योग्य है । जिसे विषयों में अनुराग हो वह तो आत्मज्ञान रहित बहिरात्मा है, गुरु कैसे होगा ? जिसके त्रस-स्थावर जीवों के धात का आरंभ होता हो, उसे पाप का भय नहीं है, पापी के गुरुपना कैसे सम्भव है ? जो चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह तथा दस प्रकार के बहिरंग परिग्रह सहित हो, वह गुरु कैसे हो सकता है ? परिग्रही तो स्वयं ही संसार मेँ फंस रहा है, वह अन्य जीवों का उद्धार करनेवाला गुरु कैसे होगा ? |