+ नि:शंकित अंग -
इदमेवे-दृशमेव, तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा
इत्यकम्पायसाम्भोवत्, सन्मार्गेऽसंशया रुचि: ॥11॥
अन्वयार्थ : [तत्तवं] तत्व [इदम्] यह [एव] ही है, [ईदृशम्] ऐसा [एव] ही है, [अन्यत्] अन्य [न] नहीं है और [अन्यथा] अन्य प्रकार भी [न] नहीं है [इति] इस तरह आप्त, आगम, गुरु के विषय में [आयसाम्भोवत्] तलवार की धार पर रखे हुए जल के सदृश [अकम्पा] अचलित [रूचि:] श्रद्धान करना और [सन्मार्गे] मोक्ष—मार्ग में संशय रहित रुचि का होना [असंशया] नि:शंकित अंग है ॥११॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानीमुक्तलक्षणदेवागमगुरुविषयस्यसम्यग्दर्शनस्यनि:शङ्‍कितत्वगुणस्वरूपम्‍प्ररूपयन्नाह --
रुचि: सम्यग्दर्शनम्। असञ्ज्ञया (यहां असंशया शब्‍द होना चाहिये ।) निशङ्कितत्वधर्मोपेता । किंविशिष्टा सती ? अकम्पा निश्चला । किंवत् ? आयसाम्भोवत् अयसि भवमायसं तच्च तदम्भश्च पानीयं तदिव तद्वत्खड्गादिगतपानीयवदित्यर्थ: क्व साकम्पेत्‍याह -- सन्मार्गे संसारसमुद्रोत्तरणार्थं सद्भिर्मृग्यते अन्वेष्यत इति सन्मार्गम् आप्तागमगुरुप्रवाहस्तस्मिन्केनोल्लेखेनेत्याह- इदमेवाप्तागमतपस्विलक्षणं तत्त्वम्ईदृशमेव उक्तप्रकारेणैव लक्षणेन लक्षितम् । नान्यत् एतस्माद्भिन्नं न । न चान्यथा उक्ततल्लक्षणादन्यथा परपरिकल्पितलक्षणेन लक्षितं, न च नैव तद्घटते इत्येवमुल्लेखेन ॥११॥

आदिमति :

रुचि का अर्थ सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा है । श्रद्धा, रुचि, स्पर्श, प्रतीति ये सब सम्यग्दर्शन के नामान्तर हैं। जिस प्रकार तलवार आदि पर चढ़ाया गया लोहे का पानी-धार निश्चल-अकम्प होती है, उसी प्रकार सन्मार्ग में 'संसारसमुद्रोत्तरणार्थं सद्भिर्मृग्यते अन्विष्यते इति सन्मार्ग: आप्तागमगुरुप्रवाह: तस्मिन्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार संसाररूप समुद्र के पार होने के लिए सत्पुरुषों के द्वारा जिसकी खोज की जाय वह सन्मार्ग कहलाता है, इस तरह सन्मार्ग का अर्थ आप्त-आगम और गुरु परम्परा का प्रवाह है एवं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है । उस सन्मार्ग के विषय में आप्त, आगम, तपस्वी अथवा जीवादि पदार्थों का स्वरूप यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है, अन्य प्रकार भी नहीं है ऐसी जो निश्चल-अकम्प प्रतीति है, श्रद्धा है, वह सम्यग्दर्शन का नि:शङ्कितत्व अंग कहलाता है। उक्त लक्षण से अन्य परवादियों के द्वारा कल्पित लक्षण सम्यक् नहीं है क्योंकि अन्य वादियों के द्वारा माने गये आप्त-आगम-गुरु में समीचीन लक्षण नहीं पाये जाते हैं ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।