+ नि:कांक्षित अंग -
कर्मपरवशे सान्ते, दुखैरन्तरितोदये
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥12॥
अन्वयार्थ : [कर्मपरवशे] कर्मों के आधीन, [सान्ते] अन्त-सहित / नश्वर, [दु:खै:] दु:खों से [अंतरितोदये] बाधित, [च] और [पापबीजे] पाप के कारण ऐसे [सूखे] सांसारिक-सुखों में [अनास्था] अरुचिपूर्ण [श्रद्धानं] श्रद्धान को [अनाकाङ्क्षणा] नि:कांक्षित अंग [स्मृता] कहते हैं ॥१२॥

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

इदानींनिष्काङ्‍क्षितत्वगुणंसम्यग्दर्शनेदर्शयन्नाह --
अनाकाङ्क्षणास्मृता निष्काङ्क्षितत्वंनिश्चितम् । कासौ ? श्रद्धा । कथम्भूता ? अनास्था नविद्यतेआस्थाशाश्वतबुद्धिर्यस्याम् । अथवानआस्थाअनास्थात । स्यान्‍तयावाश्रद्धाअनास्थाश्रद्धासाचाप्यनाकाङ्क्षणेतिस्मृता । क्वअनास्थाऽरुचि: ? सुखे वैषयिके । कथम्भूते ? कर्मपरवशे कर्मायत्ते । तथा सान्ते अन्तेनविनाशेनसहवर्तमानेतथा दु:खैरन्तरितोदये दु:खैर्मानसशारीरैरन्तरितउदय: प्रादुर्भावोयस्य । तथा पापबीजे पापोत्पत्तिकारणे ॥१२॥
आदिमति :

अनास्था-श्रद्धा की व्याख्या दो प्रकार से की है। न विद्यते आस्था शाश्वतबुद्धिर्यस्यां सा अनास्था जिसमें नित्यपने की बुद्धि नहीं है इस प्रकार अनास्था को श्रद्धा का विशेषण बनाया है । इस पक्ष में अनास्था और श्रद्धा इन दोनों पदों को समास रहित ग्रहण किया है । दूसरे पक्ष में न आस्था अनास्था तस्यां वा श्रद्धा अनास्था श्रद्धा अरुचिरित्यर्थ: अरुचि में अथवा अरुचि के द्वारा होने वाली श्रद्धा । पञ्चेन्द्रिय विषय सम्बन्धी सुख कर्मों के अधीन हैं,विनाश से सहित हैं, इनका उदय मानसिक तथा शारीरिक दु:खों से मिला हुआ है तथा पाप का कारण है, अशुभ कर्मों का बन्ध कराने में निमित्त है, ऐसे सुख में शाश्वत बुद्धि से रहित श्रद्धा करना वह सम्यग्दर्शन का नि:कांक्षितत्त्व अङ्ग कहलाता है ।
सदासुखदास :

संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमण-रूप दु:खों से आत्मा को छुडाकर उत्तम, आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है । ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर ले; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है । देवाधिदेव के मंदिर में उपकरण-दान, मण्डल-पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है ।

'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है । पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म है । जब उत्तम-क्षमादि दशलक्षण-रूप अपने आत्मा का परिपालन तथा रत्नत्रय-रूप और जीवों की दया-रूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही घर्म-रूप हो जायगा । परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्त मात्र हैं । जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतराग-रूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागता-रूप , सम्यग्ज्ञान-रूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा । यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा । जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है ।