प्रभाचन्द्राचार्य :
[[स्थूलमृषावादवैरमणं]] स्थूलश्चासौ मृषावादश्च तस्माद्वैरमणं विरमणमेव वैरमणम् । [[तद्वदन्ति]] । के ते ? [[सन्त:]] सत्पुरुषा: गणधरदेवादय: । तत्किम्, सन्तो यन्न वदन्ति । [[अलीकम्]] असत्यम् । कथम्भूतम् ? [[स्थूलम्]] यस्मिन्नुक्ते स्वपरयोर्वधबन्धादिकं राजादिभ्यो भवति तत्स्वयं तावन्न वदति । तथा [[परान्]] अन्यान् तथाविधमलीकं न वादयति । न केवलमलीकं किन्तु [[सत्यमपि]] चोरोऽयमित्यादिरूपं न स्वयं वदति न परान् वादयति । किं विशिष्टं यदुक्तं [[सत्यमपि]] परस्य [[विपदे]] ऽपकाराय भवति ॥ |
आदिमति :
'विरमणमेव वैरमणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार वैरमण शब्द में स्वार्थ में अण् प्रत्यय हुआ है । इसलिए जो अर्थ विरमण शब्द का होता है, वही वैरमण शब्द का अर्थ है । 'स्थूलं' का अर्थ यह है कि जिसके कहने से स्व और पर के लिए राज्यादिक से वध बन्धनादिक प्राप्त हों ऐसे स्थूल असत्य को जो न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों को प्रेरित कर बुलवाता है तथा ऐसा सत्य भी जैसे 'यह चोर है' इत्यादि न स्वयं बोलता है, न दूसरों से बुलवाता है, उसे सत्याणुव्रत कहते हैं । |