प्रभाचन्द्राचार्य :
एवं पञ्चप्रकारमणुव्रतं प्रतिपाद्येदानीं त्रिप्रकारं गुणव्रतं प्रतिपादयन्नाह -- आख्यान्ति प्रतिपादयन्ति । कानि ? गुणव्रतानि । के ते ? आर्या: गुणैर्गुणवद्भिर्वा जयन्ते प्राप्यन्त इत्यार्यास्तीर्थङ्करदेवादय: । किं तद्गुणव्रतम् ? दिग्व्रतं दिग्विरति । न केवलमेतदेव किन्तु अनर्थदण्डव्रतं चानर्थदण्डविरतिम् । तथा भोगोपभोगपरिमाणम् सकृद्भुज्यत इति भागोऽशनपानगन्धमाल्यादि: पुन: पुनरुपभृज्यत इत्युपभोगो वस्त्राभरणयानशयनादिस्तयो: परिमाणं कालनियमेन यावज्जीवनं वा । एतानि त्रीणि कस्माद्गुणव्रतान्युच्यन्ते ? अनुबृंहणात् वृद्धिं नयनात् । केषाम् ? गुणानाम् अष्टमूलगुणानाम् ॥ |
आदिमति :
'गुणैर्गुणवद्भिर्वा अर्यन्ते प्राप्यन्त इत्यार्यास्तीर्थङ्करेदेवादय:' जो गुणों अथवा गुणवान मनुष्यों के द्वारा प्राप्त किये जावें, उन्हें आर्य कहते हैं । वे आर्य तीर्थङ्करदेव, गणधर, प्रतिगणधर तथा आचार्य कहलाते हैं । गुण के लिए जो व्रत हैं, उन्हें गुणव्रत कहते हैं । दिग्व्रत -- दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा बाँधना दिग्व्रत कहलाता है । अनर्थदण्डव्रत -- मन, वचन, काय की निष्प्रयोजन प्रवृत्ति के परित्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं । भोगोपभोगपरिमाणव्रत -- भोग और उपभोग की वस्तुओं का कुछ समय अथवा जीवन पर्यन्त के लिए परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है । जो वस्तु एक बार भोगने में आती है, वह भोग है । जैसे- भोजन, पेय पदार्थ तथा गन्धमाला आदि । और जो बार-बार भोगने में आवे, उसे उपभोग कहते हैं । जैसे- वस्त्र, आभूषण, पालकी, वाहन, शय्या आदि । इन सभी वस्तुओं का कुछ काल के लिए या जीवनपर्यन्त के लिए दोनों प्रकार का त्याग होता है । इस प्रकार उपरितन श्लोक में कहे गये आठ मूलगुणों की वृद्धि में सहायक होने से दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत इन तीनों को आर्य पुरुषों ने गुणव्रतों में परिगणित किया है । |