+ दिग्व्रत का लक्षण -
दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि
इति सङ्कल्पो दिग्व्रतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥68॥
अन्वयार्थ : [आमृति] मरणपर्यन्त [अणुपापविनिवृत्यै] सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए [दिग्वलयं] दिशाओं के समूह को [परिगणितं] मर्यादा सहित [कृत्वा] करके [अहम्] मैं [अत:] इससे [बहि:] बाहर [न] नहीं [यास्यामि] जाऊँगा, [इति] ऐसा [संकल्प:] संकल्प करना दिग्व्रत होता है ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

तत्र दिग्व्रतस्वरूपं प्ररूपयन्नाह --
दिग्व्रतं भवति । कोऽसौ ? सङ्कल्प: । कथम्भूतम् ? अतोऽहं बहिर्न यास्यामी त्येवं रूप: । किं कृत्वा ? दिग्वलयं परिगणितं कृत्वा समर्यादं कृत्वा । कथम् ? आमृति मरणपर्यन्तं यावत् । किमर्थम् ? अणुपापविनिवृत्यै सूक्ष्मस्यापि पापस्य विनिवृत्त्यर्थम् ॥
आदिमति :

दसों दिशाओं में सीमा निर्धारित करके ऐसा संकल्प करना कि मैं इस सीमा से बाहर नहीं जाऊंगा, इसे दिग्व्रत कहते हैं । दिग्व्रत मरणपर्यन्त के लिए धारण किया जाता है । दिग्व्रत का प्रयोजन सूक्ष्म पापों से निवृत्त होता है । अर्थात् मर्यादा के बाहर सर्वथा जाना-आना बन्द हो जाने से वहाँ सूक्ष्म पाप की भी निवृत्ति हो जाती है ।