प्रभाचन्द्राचार्य :
तत्र दिग्व्रतस्वरूपं प्ररूपयन्नाह -- दिग्व्रतं भवति । कोऽसौ ? सङ्कल्प: । कथम्भूतम् ? अतोऽहं बहिर्न यास्यामी त्येवं रूप: । किं कृत्वा ? दिग्वलयं परिगणितं कृत्वा समर्यादं कृत्वा । कथम् ? आमृति मरणपर्यन्तं यावत् । किमर्थम् ? अणुपापविनिवृत्यै सूक्ष्मस्यापि पापस्य विनिवृत्त्यर्थम् ॥ |
आदिमति :
दसों दिशाओं में सीमा निर्धारित करके ऐसा संकल्प करना कि मैं इस सीमा से बाहर नहीं जाऊंगा, इसे दिग्व्रत कहते हैं । दिग्व्रत मरणपर्यन्त के लिए धारण किया जाता है । दिग्व्रत का प्रयोजन सूक्ष्म पापों से निवृत्त होता है । अर्थात् मर्यादा के बाहर सर्वथा जाना-आना बन्द हो जाने से वहाँ सूक्ष्म पाप की भी निवृत्ति हो जाती है । |