प्रभाचन्द्राचार्य :
तत्र दिग्वलयस्य परिगणितत्वे कानि मर्यादा इत्याह -- प्राहुर्मर्यादा: । कानीत्याह -- मकराकरे त्यादि-मकराकरश्च समुद्र:, सरितश्च नद्यो गङ्गाद्या:, अटवी दण्डकारण्यादिका, गिरिश्च पर्वत: सह्यविन्ध्यादि:, जनपदो देशो वराटवापीतटादि:, योजनानि विंशतित्रिंशदादिसङ्ख्यानि । किंविशिष्टान्येतानि ? प्रसिद्धानि दिग्विरतिमर्यादानां दातुर्गृहीतुश्च प्रसिद्धानि । कासां मर्यादा: ? दिशाम् । कतिसङ्ख्यावच्छिन्नानां दशानाम् । कस्मिन् कत्र्तव्ये सति मर्यादा: ? प्रतिसंहारे इत: परतो न यास्यामीति व्यावृत्तौ ॥ |
आदिमति :
मकराकर समुद्र को कहते हैं । सरित्- गंगा, सिन्धु आदि नदियाँ। अटवी- दण्डकवन आदि सघन जंगल को कहते हैं । गिरि का अर्थ पर्वत है, जैसे सह्याचल, विन्ध्याचल आदि । जनपद का अर्थ देश है, जैसे- वराट, वापीतट आदि देश । और योजन का अर्थ बीस योजन, तीस योजन आदि। व्रत देने वाले और व्रत लेने वालों को जिसका परिचय हो, उन्हें प्रसिद्ध कहते हैं । पूर्वादि दशों दिशाओं सम्बन्धी सीमा निश्चित करने के लिए समुद्र, नदी, जंगल, देश और योजन आदि को मर्यादा रूप से स्वीकार किया है । |