+ सल्लेखना का लक्षण -
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥122॥
अन्वयार्थ : [आर्या:] गणधरादिक देव [नि:प्रतीकारे] प्रतिकार रहित [उपसर्गे] उपसर्ग, [दुर्भिक्षे] दुष्काल, [जरसि] बुढ़ापा [च] और [रुजायां] रोग के उपस्तिथ होने पर [धर्माय] धर्म के लिए [तनुविमोचनं] शरीर के छोड़ने को [सल्लेखना] सल्लेखना [आहु:] कहते हैं ।

  प्रभाचन्द्राचार्य    आदिमति    सदासुखदास 

प्रभाचन्द्राचार्य :

अथ सागोरणाणुव्रतादिवत् सल्लेखनाप्यनुष्ठातव्या। सा च किं स्वरूपा कदा चानुष्ठातव्येत्याह-
आर्या गणधरदेवादय: सल्लेखनामाहु: । किं तत् ? तनुविमोचनं शरीरत्याग: । कस्मिन् सति ? उपसर्गे तिर्यङ्मनुष्यदेवाचेतनकृते । नि:प्रतीकारे प्रतीकारागोचरे । एतच्च विशेषणं दुर्भिक्षजरारुजानां प्रत्येकं सम्बन्धनीयम् । किमर्थं तद्विमोचनम् ? धर्माय रत्नत्रयाराधनार्थं न पुन: परस्य ब्रह्महत्याद्यर्थम् ॥

आदिमति :

उपद्रव को उपसर्ग कहते हैं । वह तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतनकृत इस प्रकार चार प्रकार का है । जब अन्न की एकदम कमी हो जाती है, सभी जीव-जन्तु भूख से पीडि़त होने लगते हैं, वह दुर्भिक्ष-अकाल कहलाता है । वृद्धावस्था के कारण शरीर अत्यन्त जीर्ण हो जाता है, उसे जरा कहते हैं । रोग की उद्भूति को रुजा कहते हैं । ये चारों इस रूप में उपस्थित हो जायें कि जिनका प्रतिकार नहीं हो सके, तब रत्नत्रयधर्म की आराधना करने के लिए शरीर छोडऩे को सल्लेखना कहते हैं । किन्तु स्व और पर के प्राणघात के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, वह सल्लेखना नहीं है ।