
सद्दहइ सस्सहावं जाणई अप्पाणमप्पणो सुद्धं ।
तं चिय अणुचरइ पुणो इंदियविसये णिरोहित्ता ॥9॥
श्रद्दधाति स्वस्वभावं जानाति आत्मानमात्मनः शुद्धम् ।
तमेवानुचरति पुनरिन्द्रियविषयान्निरुध्य ॥९॥
श्रद्धा आत्मस्वभाव की, निज में निज शुचि ज्ञान ।
तदाचरण चारित्र है, विषय-त्याग तप ज्ञान ॥९॥
अन्वयार्थ : निश्चयाराधना में यह जीव [सस्सहावं] अपने स्वभावरूप शुद्धात्मा का [सद्दहइ] श्रद्धान करता है, [अप्पणो] अपने आप में [शुद्धं अप्पाणं] शुद्ध आत्मा को [जाणइ] जानता है [पुणो] और [इंदियविसए] इन्द्रिय विषयों को [णिरोहित्ता] संकुचित कर [तंचिय] उसी शुद्ध आत्मा में [अणुचरइ] अनुचरण करता है - उसी में लीन होता है ।