
णिहयकसाओ भव्वो दंसणवंतो हु णाणसंपण्णो ।
दुविहपरिग्गहचत्तो मरणे आराहओ हवइ ॥17॥
निहतकषायो भव्यो दर्शनवान् हि ज्ञानसंपन्नः ।
द्विविधपरिग्रहत्यक्तो मरणे आराधको भवति ॥१७॥
निष्कषाय, सद्दृष्टि हो, भव्य, ज्ञान संयुक्त ।
आराधक वह अन्त में, द्विविध परिग्रह त्यक्त ॥१७॥
अन्वयार्थ : [णिहयकसाओ] कषायों को नष्ट करने वाला, [भव्वो] भव्य, [दंसणवंतो] सम्यग्दर्शन से युक्त, [णाणसंपण्णो] सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण और [दुविह परिग्गहचत्तो] दोनों प्रकार के परिग्रह का त्यागी पुरुष [मरणे] मरण पर्यन्त [हु] निश्चय से [आराहओ] आराधना करने वाला [हवइ] होता है ।