वर्णीजी
भवज्वलनसंभ्रान्तसत्त्वशांतिसुधार्णव: ।
देवश्चन्द्रप्रभ: पुष्यात् ज्ञानरत्नाकरश्रियम् ॥3॥
अन्वयार्थ :
संसाररूप अग्नि में भ्रमते हुए जीवों को अमृत के समुद्र के समान चन्द्रप्रभदेव हैं सो ज्ञानरूप समुद्र की लक्ष्मी को पुष्ट करें ।
वर्णीजी