प्रशान्तमतिगम्भीरं विश्वविद्याकुलगृहम्‌ ।
भव्यैकशरणं जीयाच्छ्रीमत्सर्वज्ञशासनम्‌ ॥7॥
अन्वयार्थ : व्याकरण, न्याय, छन्‍द, अलंकार, साहित्य, यंत्र, मंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, निमित्त और मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति आदि विद्याओं के वसने का कुलगृह, भव्यजीवों को एकमात्र अद्वितीय शरण, प्रशान्त, समस्त आकुलता और क्षोभ का मिटानेवाला, अति गम्भीर, मन्दबुद्धि प्राणी जिसकी थाह नहीं पा सकते ऐसे श्रीमत्‌ (निर्बाध लक्ष्मी सहित) जो सर्वज्ञ का शासन (आज्ञामत) है, सो जयवंत प्रवर्तो ।

  वर्णीजी