वर्णीजी
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च ।
सम्यक्तत्त्वोपदेशाय सतां सूक्ति: प्रवर्त्तते ॥8॥
अन्वयार्थ :
सत्पुरुषों की उत्तम वाणी जीवों के प्रकृष्ठ-ज्ञान, विवेक, हित, प्रशमता और सम्यक् प्रकार से तत्त्व के उपदेश देने के अर्थ प्रवर्त्तती है ।
वर्णीजी