अपि तीर्येत बाहुभ्यामपारो मकरालय: ।
न पुनः शक्यते वक्तुं मद्विधैर्योगिरंजकम् ॥12॥
महामतिभिर्नि: शेषसिद्धान्तपथपारगै: ।
क्रियते यत्र दिग्मोहस्तत्र कोऽन्य: प्रसर्पति ॥13॥
अन्वयार्थ : मकरालय है, तो भी अनेक समर्थ पुरुष उसे भुजाओं से तैर सकते हैं, परन्तु यह ज्ञानार्णव योगियों कों रंजायमान करनेवाला अथाह है, सो हम जैसों से नहीं तरा जा सकता ।
जहाँ बड़ी बुद्धिवाले समस्त सिद्धान्त मार्ग के पार करनेवाले भी दिशा भूल जाते हैं, वहाँ अन्य जन किस प्रकार पार पा सकते हैं ?
वर्णीजी