समन्तभद्रादिकवीन्द्रभास्वतां स्फुरन्ति यत्रामलसूक्तिरश्मय: ।
व्रजन्ति खद्योतवदेव हास्यतां न तत्र किं ज्ञानलवोद्धता जना: ॥14॥
अन्वयार्थ : जहाँ समन्तभद्रादिक कवीन्द्ररूपी सूर्यों की निर्मल उत्तम वचनरूप किरणें फैलती हैं, वहाँ ज्ञानलव से उद्धत पटबीज के समान मनुष्य क्या हास्यता को प्राप्त नहीं होंगे ?
वर्णीजी