न कवित्वाभिमानेन न कीर्तिप्रसरेच्छया ।
कृति: किन्तु मदीयेयं स्वबोधायैव केवलम्‌ ॥19॥
अन्वयार्थ : यहाँ ग्रंथरूपी मेरी कृति (कार्य) है, सो केवलमात्र अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए है । कविता के अभिमान से तथा जगत में कीर्ति होने के अभिप्राय से नहीं की जाती है ।

  वर्णीजी