अयं जागर्ति मोक्षाय वेत्ति विद्यां भ्रमं त्यजेत्‌ ।
आदत्ते शमसाम्राज्यं स्वतत्त्वाभिमुखीकृत: ॥20॥
न हि केनाप्युपायेन जन्मजातंकसंभवा ।
विषयेषु महातृष्णा पश्य पुंसां प्रशाम्यति ॥21॥
तस्या: प्रशान्तये पृज्यै: प्रतीकार: प्रदर्शित: ।
जगज्जन्तूपकाराय तस्मिन्नस्यावधीरणा ॥22॥
अनुद्विग्नैस्तथाप्यस्य स्वरूपं बन्धमोक्षयो: ।
कीर्त्यते येन निर्वेदपदवीमधिरोहति ॥23॥
निरूप्य सच्च कोऽप्युच्चैरुपदेशोऽस्य दीयते ।
येनादत्ते परां शुद्धिं तथा त्यजयति दुर्मतिम्‌ ॥24॥
अन्वयार्थ : सत्पुरुष ऐसा विचारते हैं कि, यह प्राणी अपना निज-स्वरूप तत्त्व के सन्मुख करने से मोक्ष के अर्थ जागता है । मोह-निद्रा को छोड़कर सम्यग्ज्ञान को जानता है । तथा भ्रम (अनादि-अविद्या) को छोड़कर उपशमभावरूपी (मन्दकषायरूपी) साग्राज्य को ग्रहण करता है ।
और देखो कि, पुरुषों की विषयों में महा-तृष्णा है । वह तृष्णा कैसी है ? जन्म से (संसार से) उत्पन्न हुए आतंक (दाहरोग) से वह उपजी है, सो किसी भी उपाय से नष्ट नहीं होती ।
उस तृष्णा की प्रशान्ति के अर्थ पूज्य पुरुषों ने प्रतीकार (उपाय) दिखाया है, और वह जगत के जीवों के उपकारार्थ ही दिखाया है । किन्तु यह जीव उस प्रतीकार की अवज्ञा (अनादर) करता है ।
तथापि उद्वेग-रहित पूज्य-पुरुषों के द्वारा इस प्राणी के हितार्थ बन्ध-मोक्ष का स्वरूप वर्णन किया जाता है, जिससे यह प्राणी वैराग्य-पदवी को प्राप्त
हो ।
इस कारण कोई अतिशय समीचीन उपदेश विचार करके इस प्राणी को देना चाहिये, जिससे यह प्राणी उत्कृष्ट शुद्धता को ग्रहण करे और दुर्बद्धि को छोड़ दे।

  वर्णीजी