अहो सति जगत्पूज्ये लोकद्वयविशुद्धिदे ।
ज्ञानशास्त्रे सुधी: कः स्वमसच्छास्त्रैर्विडम्बपयेत् ॥25॥
अन्वयार्थ : अहो ! जगत्पूज्य और लोक-परलोक में विशुद्धि के देनेवाले समीचीन ज्ञान-शास्त्रों के होते हुए भी ऐसा कौन सुबुद्धि है, जो मिथ्या-शास्त्रों के द्वारा अपने आत्मा को विडंबनारूप करे ।
वर्णीजी