असच्छास्त्रप्रणेतार: प्रज्ञालवमदोद्धता: ।
सन्ति केचिच्च भूपृष्ठे कवय: स्वान्यवञ्चका: ॥26॥
स्वतत्त्वविमुखैर्मूढे: कीर्तिमात्रानुरञ्जितै: ।
कुशास्त्रद्मना लोको वराको व्याकुलीकृत: ॥27॥
अन्वयार्थ : इस पृथ्वीतल में बुद्धि के अंशमात्र से मदोन्मत्त होकर असत्‌ शास्त्रों के रचनेवाले अनेक कवि हैं । वे केवल अपनी आत्मा तथा अन्य भोले-जीवों को ठगनेवाले ही है ।
तथा आत्म-तत्त्व से विमुख, अपनी कीर्ति से प्रसन्न होनेवाले मूढ़ हैं । और उन्हीं मूढों ने इस अज्ञानी जगत को अपने बनाये हुए मिथ्या-शास्त्रों के बहाने से व्याकुलित कर दिया है ।

  वर्णीजी