सम्यग्निरूप्य सद्वृतैविद्वद्भिर्वीतमत्सरै: ।
अत्र मृग्या गुणा दोषा: समाधाय मन: क्षणम्‌ ॥31॥
अन्वयार्थ : ऐसे सदाचारी पुरुष जिन्हें मत्सर (द्वेष / इर्ष्या) नहीं है, उन्हें उचित है कि इस शास्त्र तथा प्रवृत्ति में मन को समाधान करके गुण-दोष को भले प्रकार विचारें ।

  वर्णीजी