वर्णीजी
स्वसिद्धयर्थ प्रवृत्तानां सतामपि च दुर्धिय: ।
द्वेषबुद्धया प्रवर्त्तन्ते केचिज्जगति जन्तवः ॥32॥
अन्वयार्थ :
इस जगत में अनेक दुर्बद्धि ऐसे हैं, जो अपनी सिद्धि के अर्थ प्रवृत्त हुए सत्पुरुषों पर द्वेष-बुद्धि का व्यवहार करते हैं ।
वर्णीजी