वर्णीजी
अयमात्मा महामोहकलंकी येन शुद्धयति ।
तदेव स्वहितं धाम तच्च ज्योति: परं मतम् ॥36॥
अन्वयार्थ :
यह आत्मा महामोह से
(मिथ्यात्व कषाय से)
कलंकी और मलिन है, अतः जिससे यह शुद्ध हो, वही अपना हित है, वही अपना घर है और वही परम ज्योति
(प्रकाश)
है ।
वर्णीजी