विलोकय भुवनं भीमयमभोगीन्द्रशंकितम्‌ ।
अविद्याव्रजमृत्सृज्य धन्या ध्याने लयं गता: ॥37॥
अन्वयार्थ : इस जगत को भयानक कालरूपी सर्प से शंकित देखकर अविद्याव्रज (मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण के समूह को छोड़) निज-स्वरूप के ध्यान में लवलीन हो जाते हैं, वे धन्‍य (महा-भाग्यवान) पुरुष हैं ।

  वर्णीजी